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भैंस चराने से लेकर बिहार की कुर्सी तक: लालू प्रसाद यादव की पूरी कहानी

On: November 7, 2025 11:48 PM
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लालू प्रसाद यादव की पूरी कहानी, भैंस चराने से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री बनने तक
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फुलवरिया से पटना तक का सफर

गोपालगंज जिले के फुलवरिया गांव में 11 जून 1948 को जन्मे लालू प्रसाद यादव का बचपन गरीबी में बीता। पिता कुंदन राय छोटे किसान थे, जिनके पास बस दो बीघा जमीन और कुछ मवेशी थे। सात भाई-बहन का बड़ा परिवार एक झोपड़ी में गुजारा करता था। रात में अक्सर मक्का या मोटे अनाज को पानी में उबाल कर खाया जाता, और दिन में लालू भैंस चराने निकल जाते। इसी देहाती दिनचर्या के बीच गांव के स्कूल से शुरुआती पढ़ाई किये और फिर चाचा के साथ पटना का रस्ता पकड़ लिया। यह कदम छोटे गांव के लड़के को बड़े सपनों की चौखट तक ले आया।

छात्र राजनीति का उभार और जनभाषा का जादू

1965 में मैट्रिक पास करने के बाद पटना विश्वविद्यालय में दाखिला मिला। यहीं से राजनीति की मिट्टी पहली बार उनके पैरों में लगा। समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर लालू प्रसाद यादव ने संगठन से जुड़ना शुरू किया। उनके भाषणों में खांटी देहाती लहजा, सहज हास-व्यंग्य और जनता की बोली का रस था। कॉलेज के दिनों का वह दृश्य आज भी याद किया जाता है जब वे रेलिंग पर चढ़कर गमछा घुमाते हुए कुछ ही मिनटों में सैकड़ों छात्रों को जुटा लेते थे। युवाओं को लगता था कि यह लड़का उनके ही तरह बोलता है, वही सोचता है, और उसी भाषा में सवाल उठाता है।

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आपातकाल, जेल और पहली संसदीय छलांग

ग्रेजुएशन के बाद वे वेटनरी कॉलेज में कलर्क की नौकरी करने लगे लालू प्रसाद यादव, पर राजनीति का कीड़ा चैन कहां लेने देता है। 1973 में बसंत पंचमी के दिन लालू प्रसाद यादव की शादी राबड़ी देवी से हुई। 1974 में जेपी आंदोलन के बिगुल के साथ उन्होंने नौकरी छोड़ी और छात्र राजनीति में कूद पड़े। आपातकाल के वर्ष कठिन रहे, और वे करीब दो साल जेल में रहे।

लालू प्रसाद यादव ने जेल में बिताए समय ने उनके तेवर को सधा दिया और जनसंपर्क को और व्यापक कर दिया। मार्च 1977 के आम चुनाव में विपक्षी दल मिलकर जनता पार्टी बने, और छपरा से लालू प्रसाद यादव को टिकट मिला। 29 साल की उम्र में वे लोकसभा पहुंचे। यह एक प्रतीकात्मक क्षण था—गांव का लड़का राष्ट्रीय राजनीति की चौपाल तक पहुंच चुका था।

सत्ता की बाजी और 1990 का निर्णायक मोड़

आगे के वर्षों में गठबंधनों की उठा-पटक के बीच वे जनता दल की धारा में आए। 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा। मुख्यमंत्री चुनने का सवाल उठा तो रामसुंदर दास दावेदार थे, पर लालू ने रणनीति से खेल बदला। उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व की अंतर्विरोधी समीकरणों को साधा, अपने समर्थकों को संगठित किया और विधायक दल की लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया।

नतीजा यह हुआ कि समर्थन उनके पक्ष में गोलबंद हो गया और वे विधायक दल के नेता चुने गए। 10 मार्च 1990 को पटना के गांधी मैदान में, जेपी की प्रतिमा के साए में, उन्होंने शपथ लिए। राजभवन के औपचारिक गलियारों से बाहर, खुले मैदान में शपथ लेना खुद में संदेश था—सत्ता जनता के बीच लौटेगा।

जन-नेता की शैली और किस्सों की दुनिया

लालू प्रसाद यादव की राजनीति का असली रहस्य उनकी जन-भाषा और बेधड़क अंदाज में था। वे चौपाल की तरह कैबिनेट मीटिंग्स की चर्चा करते, बड़े अफसरों को भी सादी जमीन पर खड़ा कर देते। बीमार बच्चे का इलाज कराने वे अस्पताल की कतार में लगते, गांवों में किसी भी घर में बैठकर खाना खा लेते, और कभी-कभी बच्चों के लिए खेत में हेलीकॉप्टर उतार देते। यह सब एक संदेश था कि सत्ता और जनता के बीच की दूरी कम हो। उनके किस्से भी खूब चले—जैसे हवाई जहाज में उड़ान से पहले पान थूकने की उलझन और अफसर का तुरंत पाउच देना—इन बातों ने उन्हें किताबों से ज्यादा किस्सों में अमर किया हैं।

टकराव, निर्णय और राजनीतिक साहस

अक्टूबर 1990 में रामरथ यात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी का फैसला आसान नहीं था, पर लालू प्रसाद यादव ने इसे कानून-व्यवस्था और सामाजिक सौहार्द के नजरिये से जरूरी समझा। इस कदम ने राजनीतिक भूचाल पैदा किया। बीजेपी ने समर्थन वापस लिया, पर उन्होंने विधायकों के समीकरण में हुनर दिखाकर सरकार बचा लिए। यह वह दौर था जब लालू समाज के हाशिए पर खड़े समुदायों की आकांक्षाओं को सत्ता की मेज पर जगह दे रहे थे। वे बार-बार कहते दिखते कि सत्ता केवल राजधानी की दीवारों में बंद नहीं रहेगा।

चारा घोटाला, पार्टी की दरार और नई राह

1995 में वे दोबारा मुख्यमंत्री बने और राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी पकड़ मजबूत हुआ। लेकिन इसी बीच चारा घोटाले के मामलों ने उन्हें घेर लिया। जांच आगे बढ़ी, साथियों ने चुनौती दी, और पार्टी में दरार पड़ा। 5 जुलाई 1997 को उन्होंने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल बनाने का ऐलान किया। यह फैसला केवल संगठनात्मक नहीं, बल्कि वैचारिक भी था—अपनी राजनीति और अपने सामाजिक आधार को नई छतरी देना। गिरफ्तारी की आहट तेज हुई तो लालू प्रसाद यादव ने सत्ता की निरंतरता बनाए रखने के लिए राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। आलोचकों ने इसे परिवारवाद कहा, समर्थकों ने इसे संघर्ष के बीच स्थिरता का उपाय माना।

निजी किस्से, त्याग और विवादों का सिलसिला

लालू अपने खाने-पीने के किस्सों के लिए भी जाने गए। वे खुले दिल से बताते कि देहात की रसोई में जो मिल जाए, वही स्वाद है। नॉनवेज से मोह के बावजूद एक समय उन्होंने धार्मिक संकल्प के चलते उसे त्याग दिया, फिर वर्षों बाद लौट भी आए। 2013 में चारा घोटाले के एक मामले में सजा हुई और चुनाव लड़ने पर रोक लगा। कानूनी जंग लंबा चला, स्वास्थ्य के मसले भी सामने आए, मगर सार्वजनिक जीवन से उनका असर खत्म नहीं हुआ। वे जेल के भीतर और बाहर, दोनों जगह अपने समर्थकों के बीच एक प्रतीक बने रहे।

विरासत, उत्तराधिकार और आज का परिदृश्य

आज उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से तेजस्वी यादव के कंधों पर है, जो बिहार की राजनीति में खुद को एक अलग शैली में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। संसद में पार्टी की रणनीति में मीसा भारती सक्रिय दिखती हैं। बड़े बेटे तेज प्रताप यादव अक्सर सुर्खियां बटोरते रहे हैं; पारिवारिक और संगठनात्मक मतभेदों की खबरें समय-समय पर आता रहा हैं और राजनीति में नई-नई पहल की चर्चाएं भी उठता रहा हैं। परिवार, पार्टी और जनाधार—इन तीनों धुरी पर राजद की राजनीति आज भी घूमता है।

सामाजिक न्याय की धारा और ‘जंगलराज’ की बहस

लालू प्रसाद यादव की विरासत का सबसे मजबूत स्तंभ सामाजिक न्याय की राजनीति है। पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और वंचित समुदायों को उन्होंने प्रतिनिधित्व और आवाज दिया। पंचायत से संसद तक नई सामाजिक ऊर्जा आया। यह सच है कि लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में कानून-व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठे और विरोधियों ने ‘जंगलराज’ का नैरेटिव खड़ा किया। पर उतना ही सच यह भी है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा पहली बार सत्ता के गलियारों में अपनी छाप देख रहा था। लालू की राजनीति ने बिहार में यह बहस स्थायी कर दी कि विकास केवल सड़क और इमारतें नहीं, बल्कि सामाजिक साझेदारी और गरिमा का प्रतीक भी है।

मिथक, मन और मुस्कान

लालू प्रसाद यादव की कहानी केवल तिथियों और चुनावों की नहीं, बल्कि एक सभ्यता-समाज की बनावट की कहानी है। फुलवरिया की मिट्टी, पटना की गलियां, जेपी आंदोलन का उफान, गांधी मैदान की शपथ, और चौपाल की खुली हवा—इन सबका संयोग उनके व्यक्तित्व में दिखता है। वे अपनी गलतियों और उपलब्धियों के साथ एक जीवित मिथक की तरह खड़े हैं—कभी विवादों के घेरे में, कभी जन-नेता की मुस्कान के साथ, तो कभी राजनीतिक पैंतरेबाजी के उस्ताद की छवि में। उनके सफर में सीख है कि राजनीति की असली ताकत कागजों के वादों में नहीं, बल्कि भीड़ के बीच, गमछे की लहर और आंखों की चमक में बसता है।

Rocky Vikash Bihari

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